नमस्कार, दोस्तों आज हम बात करने वाले है राजसमंद के संस्थापक महाराणा राजसिंह के बारे में जो कि बेहद ही ज्यादा दानवीर होने के साथ अच्छे एकलिंग भक्त भी थे। उन्होंने बेहद बड़े विद्वानों को अपने दरबार में स्थान दिया और सम्मानित भी किया। इन्होंने चांदी, सोना, और कई अमूल्य धातुओं को दान में दिया और जनता के कल्याण के लिए कई मंदिर, द्वार, बाग-बगीचे, फव्वारे, सरोवर, व बावडिया भी बनवाई है ।
ये हिंदू धर्म की देवी-देवताओं का बेहद सम्मान करते हैं इसी चरण में उन्होंने बिना किसी संकोच और डर के प्रभु श्रीनाथजी के आगमन पर उन्हें कंधा दिया एवं अपने मेवाड़ में उनका स्वागत किया। उन्होंने श्रीनाथजी के लिए विशाल मंदिर बनवाया और उसकी हर प्रकार से रक्षा करते रहे। उन्होंने औरंगजेब को जजिया कर हटाने के लिए पत्र लिखा और कर देने से साफ इंकार भी कर दिया।
औरंगजेब ने कभी मेवाड़ पर आक्रमण नहीं किया वह हर बार षड्यंत्र करता और अंत में जब उसने मेवाड़ पर आक्रमण किया तब उसे मुंह की खानी पड़ी , इसके बाद एक षड्यंत्र रचकर उसमें महाराणा राजसिंह को विष देकर मार डाला।
तो चलिए वह महाराणा राजसिंह का जीवन परिचय के बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी प्राप्त है, आज इस लेख से सारी जानकारी एक ही जगह से प्राप्त कर लेते हैं। संपूर्ण जानकारी प्राप्त करने के लिए लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें।
महाराणा राज सिंह का जीवन परिचय (सामान्य)
- नाम – महाराणा राजसिंह
- उपाधि – करकातू
- जन्म – 24 सितंबर 1629
- जन्म स्थान – राजनगर
- माता – महारानी जनोद कुंवर मडेतनी
- पिता – महाराणा जगतसिंह
- पत्नी – रामरसदे और भी अनेक
- बच्चे – जयसिंह, राजीबा बाई बेगम
- मृत्यु – 22 अक्टूबर 1680
- मृत्यु स्थान – ओडा
प्रारंभिक जीवन
महाराणा राजसिंह का जन्म 24 सितंबर 1629 को राजनगर में महाराणा जगतसिंह के घर हुआ , इनकी माता महारानी जनोद कुंवर मडेतनी है। इन्हें करकातू की उपाधि प्राप्त थी। मेवाड़ के गुहिल वंश के अन्य शासकों की भांति ये भी जानता के प्रिय शासक थे, ये वीर, साहसी, पराक्रमी, जनप्रिय, कला प्रेमी शासक थे। इनका राज्यभिषेक मात्र 23 वर्ष की उम्र में ही कर दिया गया। यह एक वीर व कुशल प्रशासक थे।
इनके शासनकाल में दिल्ली का मुगल सम्राट औरंगजेब था इन्होंने उसके विरुद्ध पत्र लिखा और मेवाड़ से जजिया कर देने से इंकार कर दिया और समस्त हिंदुओं से जजिया कर हटाने को भी कहा। इन्होंने औरंगज़ेब को कई बार मुंह तोड़ जवाब दिया और मेवाड़ की आन-बान-शान बनाए रखी। अपने अंत समय तक मेवाड़ को कभी झुकने नहीं दिया।
रानी चारुमति से विवाह
चारुमति किशनगढ़ व रुपनगर के राजा रूपसिंह राठौड़ की पुत्री तथा मानसिंह की बहन बेहद खूबसूरत थी। उनके पिता की मृत्यु के बाद वहां के शासक मानसीह बन गए, औरंगजेब को जब उसकी खूबसूरती का पता चला तब उन्होंने चारुमति से निकाह की बात मानसिंह से कहीं। मानसीह ने औरंगजेब के दबाव में आकर उसकी बात को मंजूर कर लिया किंतु यह प्रस्ताव चारुमति को कभी मंजूर न था उन्होंने कहा कि “आत्महत्या कर लूंगी परंतु औरंगजेब से निकाह नहीं करूंगी”।
मानसीह तथा चारुमति दोनों इस विवाह से खुश नहीं थे परंतु मानसीह पर औरंगजेब का दबाव था और वह उसका विरोध भी नहीं कर सकते थे। पूरे राजपूताने में सिर्फ महाराणा राजसिंह ही मुगलों से टक्कर ले सकते थे अतः उन्होंने तथा उनकी बहन ने महाराणा को पत्र लिखा। (महाराणा राजसिंह का चारुमति से विवाह) चारुमति ने अपने पत्र में लिखा कि जिस प्रकार से भगवान श्री कृष्ण ने शिशुपाल का वध करके भीष्म की पुत्री से विवाह कर लिया।
उसी प्रकार आप औरंगजेब के चंगुल से मुझे छुड़ाएं और मुझसे विवाह करें। मानसिंह ने पत्र में लिखा कि यदि आप चारुमति से सीधे विवाह कर लेंगे तो औरंगजेब को पता चल जाएगा और वह हमें मार देगा अतः आप चारुमति से विवाह कर हम सभी को बंदी बना अपने साथ ले जाए और हमें औरंगजेब से बचाएं। इस योजना के अनुसार महाराणा राजसिंह ने चारूमती से विवाह कर मानसिंह को परिवार सहित अपने साथ ले आए।
देवलीया के हरिसिंह ने दिल्ली जाकर मुगल सम्राट को सारी घटना बता दी जिसे सुनकर वह बेहद क्रोधित हुआ , उसने महाराणा राजसिंह से वसावर तथा गयासपुर के परगने छीनकर हरिसिंह को दे दिए। (महाराणा राजसिंह का पराक्रम) औरंगजेब ने हरिसिंह के साथ महाराणा को एक पत्र भिजवाया जिसमें उन्होंने लिखा कि “आपने हमारे विरुद्ध जाकर चारुमति से विवाह क्यों किया?” महाराणा ने शांति बनाए रखने के लिए कूटनीति से कोठारिया के रावत उदयकरण के साथ पत्र भेजा और अपनी सफाई पेश की।
महाराणा राजसिंह व मुगल बादशाह शाहजहां
जब 1652 में महाराणा राजसिंह राज गद्दी पर बैठे तब मुगल बादशाह शाहजहां ने राणा का खिताब, 5000 जात, और 5000 सवारों के मनसब के साथ घोड़े व हाथी दिए। महाराणा राज सिंह ने अपने पिता के कार्य को आगे बढ़ाते हुए सर्वप्रथम चित्तौड़ किले की मरम्मत कराने कानिश्चय किया इस पर मुगल बादशाह ने इसे रुकवाते हुए कहा कि “यह 1615 ई. में मेवाड़-मुगल के बीच हुई संधि की शर्तों के अनुकूल नहीं है”।
और चित्तौड़ किले को ध्वस्त करने के लिए सादुल्लाह खान के साथ 30,000 सैनिकों की बड़ी सेना भेजी (महाराणा राजसिंह तथा मुगल बादशाह) महाराणा ने मुगल सेना से संघर्ष करना अनुचित समझ कर वहां से अपनी सेना को हटा दिया। मुगल सेना किले के बुर्ज व कंगूरे तोड़ कर चली गई।
मुगल शाहजादो में 1658 में उत्तराधिकारी के लिए युद्ध हुआ इस दौरान दारा व औरंगजेब दोनों ने महाराणा को अपनी-अपनी ओर से युद्ध में सम्मिलित होने का आमंत्रण दिया परंतु महाराणा ने दोनों पक्षों का आमंत्रण अस्वीकार कर किसी का भी पक्ष नहीं लिया। उन्होंने इस युद्ध की अवस्था का फायदा उठाते हुए राज्य तथा बाहरी मुग़ल थानों को लूट कर अपना राज जमा दिया।
(महाराणा राजसिंह की जीवनी)
महाराणा राजसिंह व मुगल सम्राट औरंगजेब
टोंक, टोड, चाकसू, मालपुरा, लालसोट, आदि को लूट कर महाराणा राजसिंह ने मेवाड़ के खोए भागों को फिर से अपने अधिकार में कर लिया। 1679 में औरंगजेब द्वारा लगाए गए जजिया कर का इन्होंने पूर्ण विरोध कर व राजकुमारी चारुमति से विवाह कर उसे अप्रसन्न कर दिया।
मुगल और मारवाड़ के बीच संघर्ष होने पर महाराणा ने राठौड़ों का साथ देकर मुगलों को चिंता में डाल दिया। मुगलों ने राठौड़ व सिसोदिया गुट को नष्ट करने में अपनी पूर्ण शक्ति लगा दी। शाहजादे अकबर को अपनी ओर मिलाना व मुगल शक्ति को कमजोर करने का महाराणा राजसिंह ने सोचा परंतु छल पूर्वक औरंगजेब ने राजपूतों व शाहजादे अकबर के बीच फूट डलवा दी। महाराणा राजसिंह बायोग्राफी इन हिंदी
हाड़ी रानी क्यों प्रसिद्ध
सलूंबर उदयपुर के रावत रतन सिंह चुंडावत महाराणा राज सिंह के सेनापति थे। इनका विवाह बूंदी के संग्राम सिंह की बेटी सलह कंवर से हुआ । रतन सिंह को विवाह के 2 दिन पश्चात ही युद्ध लड़ने जाना पड़ा तो निशानी के रूप में सलह कवर ने अपना सर काट कर दे दिया यह सलह कंवर ही हाड़ी रानी के नाम से प्रसिद्ध हुई।
महाराणा राजसिंह के काल में हुए निर्माण
महाराणा राज सिंह ने अपने निरंतर संघर्ष के दौरान भी मेवाड़ के पुनर्निर्माण के लिए समय निकाला। महाराणा बनने के पहले से ही वे इस कार्य में जुट गए , अपने राजकुमार पद के समय उन्होंने “सर्वऋतुविलास (सरबत विलास)” नाम के महल व बावडियों का निर्माण करवाया (महाराणा राज सिंह द्वारा किए गए निर्माण) देबारी के घाटे का दरवाजा और कोट भी इन्होंने ही विक्रम संवत 1716 में तैयार करवाया था।
महाराणा बनने के पश्चात अपने पिता के अधूरे कार्य को पूरा करते हुए जगदीश मंदिर में सूर्य, गणपति, शनि, व शिव के छोटे मंदिरों को बनवाया विक्रम संवत 1718 से 1732 में उन्होंने राजसमंद तालाब तथा नौ चौकी के निकट पहाड़ पर महल व द्वारकाधीश का मंदिर भी बनवाया। राजसमंद तालाब के पास ही राजनगर नाम का कस्बा भी बसाया। उदयपुर में विक्रम संवत 1721 में अंबा माता के मंदिर का निर्माण करवाया, उन्होंने उदयपुर के पास ‘जनासागर तालाब’ अपनी माता जनादे के नाम से बनवाया।
कुंवर जयसिंह ने रंगसागर तालाब और राजसिंह जी के मंत्री फतेहचंद ने एक बावड़ी का निर्माण बेडवास में विक्रम संवत 1725 में करवाया। महाराणा ने इंद्रसर (इंद्र सरोवर) के जीर्ण बांध को नया बनवाया। इनकी झाली महारानी ने एक मुखी बावड़ी बनवाई, महारानी चारुमति ने विक्रम संवत 1732 में राजनगर में एक बावड़ी बनवाइ, व ‘जया नामक बावड़ी’ देबारी में महारानी पवार ने बनवाई इन तीनों बावडियों को अब “त्रीमुखी बावड़ी” कहते हैं।
कला एवं साहित्य
इनका काल संघर्ष काल में भी साहित्य के विकास का काल था। जहां एक और महाराणा मुगलों से संघर्षरत थे वहीं दूसरी और कविताएं भी लिखा करते थे। उन्होंने कई कवियों, विद्वानों, वास्तुकारो व कलाविदो को अपने यहां आश्रय दिया एवं
कला व साहित्य को और कुशल करने में अपना योगदान दिया। (महाराणा राजसिंह का कला एवं साहित्य में योगदान)
इनके काल में सुंदर, एक मुखी, व त्रिमुखी बावडीयों में देव प्रतिमाएं बनी हुई है जो कि विकसित कला एवं साहित्य का उदाहरण है। इनके काल में सदाशिव की राजरत्नाकर, रणछोड़ भट्ट की राज प्रशस्ति महाकाव्य, मानकवि की राज विलास, एवं किशोर दास की राज प्रसाद, आदि महत्वपूर्ण ग्रंथों को रचा गया है। महाराणा के प्रश्रय में ऐतिहासिक ग्रंथों की पांडुलिपिया भी तैयार की गई है। श्रीनाथ जी के मेवाड़ आगमन में नाथद्वारा चित्र शैली जिसे पिछवाई के नाम से भी जानते हैं का पादुर्भव इनके काल में ही मिलता है।
विश्व विख्यात श्रंखलाए
महाराणा ने रामायण श्रंखला को पांडुलिपि चित्रकला का संरक्षण जारी रखते हुए पूर्ण किया । मनोहर, सरदारबुद्दीन, डक्कनी जैसे और चित्रकारों द्वारा रामायण पांडुलिपि चित्रों का निर्माण करवाया।
महाराणा के शासनकाल में कई सारी विश्वविख्यात श्रंखला बनी है उनमें से कुछ निम्न है-
- 1665-1670 में भगवत पुराण श्रृंखला
- 1660 में राग मालकोश रागमाला श्रंखला
- 1655 में सूरसागर श्रंखला
- 1680 में गजेंद्र मोक्ष श्रंखला
- 1665 में गीत गोविंद
- श्रंखला
- 1680 में एकलिंग महाकाव्य श्रंखला
दानवीर महाराणा राज सिंह
महाराणा राज सिंह के जीवन वृत्त के बारे में रणछोड़ भट्ट ने “राजसिंह प्रशस्ति महाकाव्य” की रचना की है। इस महाकाव्य में महाराणा का जीवन परिचय, चरित्र, दान-पुण्य, अभियान, और संपूर्ण घटनाक्रम, को सविस्तार लिखा है। इनके जीवन वृत्त को महाराणा जयसिंह ने राजसमुद्र में बनी नौ-चौकी पर बनी 25 बड़ी शिलाओ पर खुदवाया था।
“यह शिलालेख भारत का सबसे बड़ा शिलालेख है”। इन्होंने अपने जीवन में रत्न, रजत, स्वर्ण, आदि का दान किया। उन्होंने अनेक धार्मिक आयोजन किए और घोड़े, हाथी तथा भूदान भी किया। उन्होंने कई कन्याओं के विवाह करवाएं और अपने परिवार वालों से भी दान-पुण्य करवाएं। कई धार्मिक यात्राओं का आयोजन कर दान दक्षिणा प्रचुर मात्रा में दिए।
कार्य एवं उपलब्धियां
“विजय करकातू की उपाधि” महाराणा ने अपनी प्रजा में सैनिक तथा नैतिक प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से प्राप्त की। गोमती नदी के पानी को ठहराकर राजसमंद झील का निर्माण अकाल प्रबंधन के उद्देश्य से करवाया एवं इसी झील के किनारे पर नौ-चौकी पर राज प्रशस्ति नामक शिलालेख लगवाया। राज प्रशस्ति को संगमरमर के 25 काले पत्थरों की शीलाओ पर खुदवाया गया है , इसकी रचना रणछोड़ भट्ट ने की है।
उन्होंने सिन्हाड जो कि अब नाथद्वारा के नाम से प्रसिद्ध है में श्रीनाथ जी को तथा राजसमंद, कांकरोली में द्वारकाधीश को प्रतिष्ठित करवाया एवं उदयपुर में अंबिका माता का मंदिर भी स्थापित करवाया था। उनकी पत्नी रामरसदे ने त्रिमुखी/ जया बावड़ी का निर्माण उदयपुर में करवाया था।
राजसिंह पैनोरमा
महाराणा राजसिंह के जीवन परिचय , इतिहास, एवं आदर्शो आदि पर निर्धारित एक पैनोरमा राजस्थान धरोहर संरक्षण और प्रोन्नती प्राधिकरण द्वारा 11 अगस्त 2018 में आमजन के लिए शुरू किया गया है। मेवाड़ के इतिहास को दिखाने तथा देशी व विदेशी पर्यटकों के आकर्षण के लिए पैनोरमा में डिस्प्ले प्लान व पटकथा लेखन को जोड़ा गया है।
यह पैनोरमा 2 मंजिला है जिसमे ऊपर की मंजिल में 2 चित्र दीर्घा है एवं नीचे वाले भाग में 3 दीर्घा है। इसमें बने मुख्य मॉडल में महाराणा राजसिंह के जीवन के प्रमुख तथ्य जैसे जीवन, राज्याभिषेक, जजिया कर से विरोध, औरंगजेब से युद्ध, आदि अनेक बातो को मूर्तियों का रूप देकर मॉडल में रखे गए हैं।
मृत्यु
महाराणा बेहद ही वीर साहसी और कुशल प्रशासक थे वे अपने अंत समय तक औरंगजेब से लड़ना चाहते और अपनी प्रजा की रक्षा करना चाहते थे। वे युद्ध को जाते वक्त रास्ते में ओडा नामक गांव में विश्राम के लिए रुके वहीं औरंगजेब ने एक षडयंत्र रच कर महाराणा के भोजन में विष मिलवा दिया। और वे वि. स. 1737 कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष दशमी को इस संसार को छोड़कर स्वर्ग सिधार गए। उसी गाव में उनका दाह संस्कार किया गया।
FAQ
महाराणा राजसिंह का जन्म कब हुआ?
इनका जन्म 24 सितंबर 1629 को महाराणा जगतसिंह के घर राजनगर में हुआ।
महाराणा राजसिंह को कोनसी उपाधि प्राप्त है?
विजय करकातू की उपाधि।
महाराणा राजसिंह की मृत्यु कब हुई?
22 अक्टुबर 1680 को ओडा नामक गांव में।
भारत का सबसे बड़ा शिलालेख कोनसा है?
“राजसिंह प्रशस्ति” 25 बड़ी शिलाओ पर खुदवाया गया है। यह राजसमंद में नों-चौकी पाल पर बना हुआ है।
“राजसिंह पैनोरमा” किससे संबंधित है?
यह महाराणा राजसिंह के जीवन वृत्त से संबंधित है, जिसमे डिस्प्ले प्लान तथा पटकथा लेखन को जोड़ा गया है।
तो दोस्तों, आज हमने महाराणा राजसिंह के बारे में विस्तार से (Maharana Rajsingh Biography in Hindi) जानकारी प्राप्त की है। महाराणा बड़े ही दानवीर पुरुष तथा एकलिंग भक्त थे। इन्होंने कई मंदिर, द्वार, बाग-बगीचे, फव्वारे, तथा बावड़ियां भी बनवाई। ये एक ऐसे महापुरुष है जिनके बारे में विस्तार से बेहद कम लोग जानते हैं तो अगर आपको हमारा लेख अच्छा लगे तो इसे लाईक व शेयर करें ताकि आपके मित्रो को भी हमारे इस राष्ट्र भक्त के बारे में पता चल सके।