आज की पोस्ट में हम मारवाड़ नरेश राव चन्द्रसेन राठौड़ का जीवन परिचय जानने वाले हैं, जो भारत और मारवाड़ के साहसी और पराक्रमी राजा थे। कहा जाता हैं महाराण प्रताप ने इनका अनुसरण किया और इनकी तरह ही मुगलों का सामना किया। राव चन्द्रसेन राठौड़ कभी भी मुगलो के आगे नहीं झुके और अपने साहस और पराक्रम से उनका सामना किया।
- जन्म – 30 जुलाई 1541
- पिता -मालदेव राठौड़, वही मालदेव राठौड़ जिनके साथ ही युद्ध करके शेर शाह सुरी ने कहा आज मुट्ठी भर बाजरे के लिए हिंदुस्तान के बादशाह खो देता। राव चंद्रसेन वीर राजा का वीर पुत्र था।
- माता- रानी जाली स्वरूप देवी।
- भाई – उदय सिंह ,राम सिंह भाइयों के साथ उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष हुआ था, जिसमें राव चंद्रसेन विजय रहे।
- पत्नियां- ऐसा कहा जाता है कि रामचंद्र सैन की 11 पत्नियां थी।
राव चन्द्रसेन राठौड़ की पत्नियाँ
(1)रानी सौभाग्य देवी:- रानी भटियाणी चंद्रसेन के साथ सती हुई थी। जैसलमेर के शासक की रावल हर राज की पुत्री थी।
(2) कल्याण देवी:- बीकानेर के शासक राव बिका की पोती, इनसे प्राप्त संतान उग्रसेन था।
(3) रानी सूरज देवी सिसोदिया:– मेवाड़ के वीर राजा प्रताप की बहिन व महाराणा उदय सिंह की पुत्री थी। इनसे प्राप्त पुत्र आसकरण था।
(4) कछवाई रानी सुभागी देवी:- इन से प्राप्त पुत्र रायसिंह था।
(5) प्रेनमल देवी
(6) कुमकुम देवी
(6) भटियाणी सहोदरा।
(7) ओंकार देवी ।
(8) पुंग देवी चौहान :-ये भी राव चंद्रसेन के साथ सती हुई थी।
(9) जगिसा भटियाणी
(10) सोढ़ी मेंघा
चंद्रसैन राठौर के पुत्र
(1) उग्रसेन
(2)आसकरण
(3) रायसेन
राव चंद्रसेन का स्मारक:- 11 जनवरी 1581 का निधन, सारण की पहाड़ी सोजत पाली में स्मारक। Rao Chandra Sen biography in Hindi
राव चंद्रसेन जी की उपाधियां
(1) मारवाड़ का प्रताप – मारवाड़ का प्रताप कहां जाता था क्योंकि इन्होंने भी कभी अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की पहाड़ी जीवन बिताया लेकिन अपना स्वाभिमान जिंदा रखा, अपना जमीर जिंदा रखा लेकिन कभी भी मुगलों के सामने अपना शीश नहीं झुकाया। महाराणा प्रताप के समान ही वीर। चंद्रसेन और प्रताप के विचार एक जैसे ही थे यहां तक कि प्रताप इनके प्रेरणा स्रोत भी रहे हैं इसलिए इन्हें मारवाड़ का प्रताप कहां जाता है।
(2) प्रताप का प्रदर्शक:- यानी प्रताप को राह दिखाने वाले, प्रताप के प्रेरणा स्रोत।
(3) प्रताप का अग्रगामी:- राव चंद्रसेन का जन्म और निधन प्रताप से पहले हुआ था इसलिए हम इन्हें प्रताप के पूर्वज कह सकते हैं । चंद्रसेन ने कभी अपनी हार नहीं मानी और पहाड़ों में अपना जीवन व्यतीत किया उसी प्रकार प्रताप ने भी यही मार्ग चुना इसलिए हम इन्हें प्रताप के अग्रगामी कहते है।
(4) भुला बिसरा राजा:- महाराणा प्रताप के बारे में खूब जानकारी मिलेगी प्रताप के नाम के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे, राष्ट्रीय बस स्टैंड ,डाक टिकट और उनके बारे में विदेशों में भी पढ़ाया जाता है उनके नाम से कई राष्ट्रीय उद्यान, सवारी रेलगाड़ी, बहुत जानकारी मिलेगी यह सब स्वाभाविक है क्योंकि प्रताप एक महान राजा था।
लेकिन दोस्तों प्रताप के समान ही वीर, प्रताप के समान ही राज लोभ छोड़कर प्रजा, स्वाभिमान,सम्मान के लिए पहाड़ी जीवन बिताया, लेकिन कभी भी अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। प्रताप के प्रेरणा स्रोत रहे उन्होंने अपने स्वाभिमान अपने जमीर को जिंदा रखा लेकिन कभी मुगलों के आगे सिर नहीं जुकाया परन्तु राव चंद्रसेन को इतिहासकारों ने भुला दिया। इसे हम इतिहासकरो की गद्दारी कहे या हमारा दुर्भाग्य लेकिन इनके संघर्ष, बलिदान त्याग को इतिहास में कोई महत्त्व नहीं दिया गया, इसलिए इन्हें भुला बिसरा राजा कहा जाता है।
(5) विस्मृत नायक:- विस्मृत यानी भूल जाना और नायक यानी श्रेष्ठ पुरुष।
उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष (Rao chandrasen history in Hindi)
राव चंद्रसेन मालदेव के सबसे छोटे पुत्र थे लेकिन वे बचपन से ही साहसी व पराक्रमी थे। इनके पराक्रम और साहस को देखकर मालदेव जी ने इनको अपना उत्तराधिकारी मान लिया था और मालदेव ने अपने उत्तराधिकारी राव चंद्रसेन को घोषित कर दिया। इसी कारण इनके बड़े भाई रामसिह व उदय सिंह इनसे नाराज हो गए और यहीं से
इनका उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष शुरू हुआ। राव चंद्रसेन के गद्दी पर बैठते ही इन दोनों ने विद्रोह कर दिया लेकिन राव चंद्रसेन वीर साहसी पुरुष थे इन्होंने इन दोनों भाइयों के विद्रोह का दमन किया। मालदेव राठौड़ ने उदय सिंह को लोहावट की जागीर प्रदान की और राम सिंह का सोजत नाडोल पाली की जागीर प्रदान की थी।
इनके विद्रोह के दमन के बाद दोनों भाई मन में क्रोध लेकर चंद्रसेन से बदला लेने का अवसर देखते रहे। और इसी तरह अकबर के दरबार में पेश हुए और अपने भाई के खिलाफ विद्रोह के लिए सहायता मांगी अकबर फूट डालो राज करो नीति का सासक था। उदय सिंह ने अपना राजनीतिक स्वार्थ देखते हुए और उन दोनों को सहायता प्रदान करने के लिए हुसैन कुली खां के नेतृत्व में जोधपुर सेना भेजी।
लोहावट का युद्ध 1564:- उदय सिंह व राव चंद्रसेन के बीच, मुगलों की सेना जोधपुर पहुंची और उसमे उनके दोनों भाई भी थे चंद्रसेन अपने भाइयों को हराना नहीं चाहता था लेकिन उन्हें बहुत दुख हुआ जब उन्होंने देखा कि उनके भाई अकबर के साथ में मिल गए है। अब राव चंद्रसेन विवश होकर भद्राजून चले गए।
नागौर दरबार :- 3 नवंबर 1570 को अकबर ने नागौर दरबार का आयोजन किया जहां आसपास के सभी राजा आए बूंदी के सुरजन सिंह हाडा, जैसलमेर के हरराय भाटी ,बीकानेर के कल्याणमल भी आए। जोधपुर से चले जाने के बाद चंद्रसेन की आर्थिक स्थिति बहुत ही बिगड़ गई थी और उनके पास बड़ी सेना भी नहीं थी। जो सेना थी उनका भी भरण पोषण नहीं हो पा रहा था।
और अपनी स्थिति को देखते हुए चंद्रसेन राठौर ने निश्चय किया कि वह अकबर की अधीनता स्वीकार कर लेंगे और वह भी नागौर दरबार में पहुंचे वहां उनके भाई उदय सिंह और राम सिंह जी आए हुए थे। अकबर के नागौर दरबार लगाने का उद्देश्य यह था कि शुक्र तालाब का निर्माण करवाने व अकाल राहत कार्य के बहाने मारवाड़ के राजाओं को अधीन करना था।
चंद्रसेन राठौड़ ने नागौर दरबार में देखा कि वहां सभी राजा अकबर के सामने झुक कर सलाम कर रहे है। और तभी राव चंद्रसेन ने सोचा कि मैं मर जाऊंगा लेकिन मुगलों के सामने कभी नहीं झुकूंगा और चंद्रसेन को अन्य राजाओं के जैसा उचित सम्मान भी नहीं मिल रहा था अब चंद्रसेन का मन बहुत विचलित हो गया और वह बीच दरबार से ही वापस भाद्राजून से लौट गए।
मुगलों से संघर्ष
राव चंद्रसेन नागौर दरबार से बिना अधीनता स्वीकार किए ही चले गए जिससे अकबर आग बबूला हो गया और 1571 ईस्वी हुसैन कुली खा के नेतृत्व में सेना भेजी लेकिन असफल रहे। 30 अक्टूबर 1572 को राम सिंह को जोधपुर का प्रशासक बनाया।
चंद्र सिंह राठौड़ का निर्वासित काल :- जब अकबर को पता चला कि चंद्रसेन भाद्राजून है और उनकी आर्थिक स्थिति भी खराब है और उनके पास में सेना भी अधिक नहीं है इसी मौके का फायदा उठाकर अपनी सेना को भाद्राजून भेजा। मुगलों की सेना भद्राजून आई, लेकिन चंद्रसेन वहां से सिवाना चले गए। चंद्रसेन के पास पूरी सेना नहीं थी तो फिर उन्होंने सोचा कि ऐसे तो मुगलों का सामना नहीं किया जा सकता तो वे सिवाना से छापेमारी युद्ध करने लगे और मुगलों के नाक में दम कर दिया। अकबर ने 1575 में जलाल खान के नेतृत्व में सेना भेजी लेकिन यहां जलाल का मारा गया और चंद्र सेन की जीत हुई।
मार्च 1576 में शाहबाज खान के नेतृत्व में भारी संख्या में सेना भेजी जिसके बारे में अकबर ने सोचा नहीं था कि चंद्रसेन के लिए इतनी बड़ी सेना भेजनी पड़ेगी, सेना ने सिवाना पर तो अपना अधिकार कर लिया लेकिन राव चंद्रसेन उनके हाथ नहीं आए और राव चंद्रसेन यहां से निकलकर रामपुरा चले गए। अकबर की सेना ने उनका पीछा किया लेकिन वह पकड़ में नहीं आए। चंद्रसेन रामपुरा होते हुए बांसवाड़ा पहुंचे वहां प्रताप सिंह के पास शरण ली।
वहीं से आगे चलते हुए 1577 -1778 में महाराणा प्रताप से मुलाकात हुई। सोजत जहां कला राठौर चंद्रसेन का भतीजा सासन कर रहे थे वहां 1573 ईस्वी में हुसैन कुली खा द्वारा अधिकार कर लिया गया। 7 जुलाई 1580 को चंद्र सेन ने सोजत पर पुनः अपना अधिकार किया और सिचियाई की पहाड़ियों पर अपना निवास स्थल बनाया।
राव चंद्रसेन की मृत्यु व स्मारक :- सीचियाई की पहाड़ियों में निवास कर रहे चंद्रसेन कि 11 जन 1581 में निधन हो गया। चंद्रसेन का स्मारक सारण की पहाड़ी सोजत पाली में अष्वरोही प्रतिमा के साथ पांच महिला खड़ी हुई लगी है।
निष्कर्ष:- रक्त बहाकर श्रंगार करूं खामोश यहां तलवार नहीं हम वंशज ऐसे महान पुरुषों के तो हमें हार तो कतई स्वीकार नहीं।
राव चंद्रसेन राठौड़ की जीवनी से हमें एक बात तो सीखने को मिल जाती है कि दुश्मन के साथ हाथ मिलाने से अच्छा है देश के लिए गर्व के साथ शहीद होना। दोस्तों अगर आपको पोस्ट को पढ के अच्छा लगा हो कुछ सीखने को मिला हो तो हमें कमेंट करके जरूर बताये और पोस्ट अपने दोस्तों के साथ शेयर जरूर करें।